जी रहें हैं दिल में सपनों को लेकर..
रुठे हुए कुछ अपनों को लेकर..
अपनों के दिए जख्मों को लेकर..
बेहिसाब दर्द-ए-दफनों को लेकर..
इन्हीं के साथ बस जीये जा रहे हैं..
कडवाहट के घुंट पिये जा रहे हैं..
दिल के जख्म सिये जा रहे हैं ..
अनचाहे समझौते किये जा रहे हैं..
मिल जाता अपनों का साथ मुझे गर..
होता ना मैं भी यूं घर में ही बेघर..
दुनिया तो पेहले ही मुठ्ठि में होती..
कायनात सारी ये झुकती मेरे दर..
ना मायूस हूँ मैं जिंदगी से अपनी..
उदासी सी छाई हैं फिरभी जेहेन पर..
अपनों को अपनों से ज्यादा था चाहा..
मुझपे ना आया उन्हीको रहम पर..
उम्मीद का चिराग रखा है जलाकर..
बीतेगा वक्त मगर ये भी रुलाकर..
खुदा से बस इतनी ही इल्तिजा है..
फजलोकरम मुझपे रखना बनाकर..
-भूषण जोशी
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